रोज एक शाम

अब   कुछ   लिखना   का   मन   नहीं   करता  है 
एकटक    टकटकी    बाँधे    मौन    अविरत

जाते  उस  लाल   बिम्ब  को  देर  तक  तकती   हूँ

ये   मेरा   अंत   नहीं    आरंभ   है 

नीरव    को    अपने    में    लय   करती    हुई 

खुद   से   दूर   जा   खुद   को    ढूँढती   

उसकी   थाह   से    खुद    को   जोड़ती   

उसमें    अपरिहार्य   रुप   से    बँधी   जाती

हरे   वृक्षों    की    झुरमुट    की    गोद   में   छिपते

हवाओं    में    शीतलता   की   बयार    होती   है

वातावरण   में   एक   अलग   हीं   

खुनक   छाई   होती   है

हर   तरफ    संझा   का    एक    पेहरा    

होता    है   ,    मन   में   कुछ   ज्वार   से   उठते  है

अनेकों   शीश   उस   मंदिर   में   सादर   झुकते  है

घण्ट   मंजीरा    हाथों    की    बजती   तालियाँ

स्तुतिगान   एक  मधुर  समवेत  लय  में   चलता  

सा    कानों    में    सुनायी    पड़ता    है

वहाँ    पर    मैं    भी    अदृश्य    सी    अनेकों

कंठों   के    साथ   निसंकोच   शामिल   हो   जाती

मन   अकस्मात   अभिभूत   हो   उठता   है

धीरे  -   धीरे    सांझ    अपने   में   घुलती

किहीं    दूर   निकल   जाती   है

मन   में   अनेक    भावों   को   वो   जगाजाती   है

पूरे   दिन    की    बातें    एक   सपाट    लय

में    बेरोकटोक    सम्पन्न    हो   जाती   है  

यही    तो    वो   समय    होता    है 

जब     उस    असीम    से     आ   मिलती   हूँ

मन   थिर    हो    जाता   है  ,

हृदय   के   आवेग    शांत    हो   जाता   है 

जब    शरणागत    बन    इन    नयनाभिराम 

दृश्यों    में     खो    जाती    हूँ

पोर  -   पोर    खिल    उठता    है 

जीवन       मृत्यु     का    सुंदर   सामंजस्य 

जब   एक   क्षण   में   महसूस  करती   सदियों   को

जीती   एक   अन्नत   यात्रा  पर  निकल  जाती  हूँ

फिर   अचानक   एक   आवाज   आती   है

अब   कल   मिलेंगे  ,  अभी   रसोईघर   में   जाकर

आज  क्या  बनाना   है  , उसकी   तैयारी  करते  है । 


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