क्या कहती थी मन की मानसी
किसको ये शगुन भेंट चढ़ाती
राह में बार अनगनित दीपक
किसकी प्रतीक्षा को बारम्बार अकुलाती ?
रात घने अंधेरे तम में डूबा विश्व
स्वप्नलोक में जब विचरे
खुले नयनालोक से दिपदिप ये
कौन किसके सपने देखे ?
रजनी की मधुरिम बेला
कुमदिनी सा श्वेत परिधान ओढ़े
ये कौन साध्वी ब्रह्मरुप की करे
प्रतीक्षा ? युग कई बीते ।
तरंगिणी की शांत मध्दिम
लहरें कर देती संताप उर के शीतल
छा जाता चाँदनी का उज्ज्वल रुप मन
समतल पर , देती अथक हिलोरें जीवन
के इन प्रयासों को ;
इस प्रशांत सरोवर तीरे चमके
पीत - प्रकाश जुगनू निर्भय प्रांत में डोले
कहाँ छिपे थे ये बिंदु ?
दुख की परिधि में आकर ही तो जाना ।
गहन अंध में निशाकर ! जो मैं ना जागी
फिर भी तुम तो थे उस पल - पल के साक्षी
बताओ , क्या इन नभ - ज्योति में
संदेश छिपा था ?
क्या कहती थी इस घोर अंधेरे में
इन सबसे मन की मानसी ?
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