बार - बार लौट आती हूँ
भावों विचारों को सहज पिरोती हूँ ।
शब्दों की अनन्य दुनिया में जा विचरती हूँ ।
मन की बात खुलके कहती हूँ ।
उम्मीदों को कायम रखने के लिए ही
लिखती हूँ ।
प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य स्वरुप
के चित्र को उसके मधुरिम संदेश को
उकेरती हूँ ।
अपने अंतर्उर में उनके अविस्मृत क्षण
सहेजती हूँ ।
मन की अतल गहराइयों में जा
छिपे मेरे अंहकार को फेंकने के लिए
ही कलम थामे राम का नाम जपती हूँ ।
भीतर दिखावे की गहराई कसक के
भरी अपनी बुराईयों से बचने का
प्रयास करती हूँ , पर विधना बार - बार
दो पग पीछे हीं को क्यों लौट आती हूँ ?
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